मीरा बाई का जीवन परिचय
Biography of Meera Bai Semester 2
मीराबाई का जन्म पुराने जोधपुर राज्य के अन्तर्गत मेड़तिया के गाँव कुड़की में हुआ। आपके पिता राव रत्न सिंह थे जो राव दूदा जी के चौथे पुत्र थे। जोधपुर को बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधा जी मीरा के पड़दादा थे। डॉ० परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार मीराबाई का जन्म सं० 1555 वि० के आसपास हुआ। 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका' में मीराबाई का जन्म सन् 1555 (सम्वत् 1498) दिया गया है। मीरा भी अपने को मेड़तिया ही मानती थी। उन्होंने लिखा है-
मेड़तिया घर जन्म लियो है, मीरा नाम कहायो।
मीरा की माता का बचपन में ही देहान्त हो जाने के कारण इनके दादा राव दूदा ने इन्हें मेड़तिया बुला लिया और अपनी देखरेख में इनका पालन-पोषण किया। इन्हीं से मीरा को भक्ति की प्रेरणा मिली। सं० 1575 में राव दृदा जी परलोक सिधार गए। इनके एक वर्ष पश्चात् चित्तौड़ के महाराणा राणा संग्राम सिंह के बड़े पुत्र कुंवर भोजराज के साथ मीरा का विवाह हो गया। राणा संग्राम सिंह वही इतिहास के प्रसिद्ध योद्धा थे जिन्हें राणा सांगा भी कहा जाता है तथा जिन्होंने बाबर के साथ युद्ध करते हुए फतेहपुर सीकरी में 80 घाव खाए थे और फिर भी लड़ते रहे थे। जनश्रुतियों के अनुसार मीरा को बचपन से ही श्रीकृष्ण से लगाव हो गया था और बाल्यकाल से ही उन्हें अपना पति मानने लगी थीं। विवाहोपरान्त भी उनकी ऐसी ही धारणा बनी रही। उनके पति ने उन्हें समझाने की चेष्टा की थी किन्तु असफल रहे। चित्तौड़ का राजवंश शैव था और मीरा पर अपने दादा की शिक्षा के फलस्वरूप वैष्णव भक्ति का रंग चढ़ा था। मीरा की सास भी बड़े कठोर स्वभाव की थी, इसका उल्लेख मीरा के काव्य में अनेक स्थानों पर मिलता है-
'सासू लड़ै री सजनी, नणद खिजै री, पीव ही रह्यौ री सँभाइ।'
आखिर मीरा की अवस्था ही कितनी थी, मात्र तेरह वर्ष। वह अपने पीहर से किसी साधु से प्राप्त हुई श्री कृष्ण जी की मूर्ति साथ लाई थी और उसी को अपना पति समझ पूजा किया करती थी।
सन् 1518 ई० को मीरा के पति एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। राजपूत प्रथा के अनुसार मीरा को पति के साथ सती होने को कहा गया किन्तु मीरा ने यह कर साफ़ इन्कार कर दिया कि मेरे तो पति गिरिधर नागर श्रीकृष्ण हैं अतः मैं सती क्यों होऊं। उन्होंने कहा-
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥
यह एक क्रान्तिकारी कदम था। मीरा ने इस प्रकार नारी स्वातन्त्र्य का श्रीगणेश कर दिया। विवाह के बारह वर्ष बाद उनके सास ससुर और पिता की मृत्यु हो गई। सिर पर कोई न रहा, गोद सूनी थी। मीरा का वैधव्य करुणा और निराशा की सीमा पार कर गया। अब उनके लिए श्रीकृष्ण भक्ति के सिवा कोई काम नहीं था। दिन बीतने लगे और मौरा की भक्ति की यह तन्मयता दिन-दिन बढ़ने लगी। धीरे-धीरे उनकी ख्याति सारे मेवाड़ में फैल गई। साधु संत उनके दर्शनों को आने लगे। चित्तौड़ के तत्कालीन महाराणा विक्रमादित्य ने मीरा को समझाना चाहा, रोकना चाहा किन्तु मीरा अपने पथ पर अटल और अचल रही। अब राणा ने उन्हें कष्ट देने शुरू कर दिए। चरणामृत के बहाने विष भेजा, पिटारे में बंद कर साँप भेजा, उन्हें शूलों की सेज पर सुलाया किन्तु मीरा पर उन यातनाओं का कोई प्रभाव न हुआ। मीरा तीर्थयात्रा को निकल पड़ीं। श्रीकृष्ण के नाम का भजन कीर्तन करती हुई मीरा अपने जीवन के अन्तिम दिनों में द्वारिका में थीं। वहीं संवत् 1680 (सन् 1623) के आसपास श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने कीर्तन करते हुए मीरा का महाप्रयाण हो गया। भक्ति की यह उज्ज्वल तारिका आकाश मण्डल में विलीन हो गई। ज्योति ज्योति समा गई। मीरा अमर हो गई।
रचनाएँ---मीरा ने अपने दादा के पास रहते हुए साहित्य, नृत्य और संगीत की शिक्षा पाई थी। साथ ही भक्ति और वीरत्व की भावनाओं को भी अपने दादा से संस्कारवश प्राप्त किया था। वैधव्य में श्रीकृष्ण अनुराग के कारण उन्होंने अपने हृदय के दर्द को कविता (पदों) में अभिव्यक्त किया। वही साहित्य बन गया। विभिन्न विद्वानों ने मीरा की रचनाओं के विषय में विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं। उन सभी के मतों के आधार पर मीराबाई की निम्नलिखित आठ रचनाएँ मानी जाती हैं-
1. नरसी जी रो माहेरो, 2. गीत गोविन्द की टीका, 3. राग सोरठ संग्रह, 4. राग गोबिन्द, 5. मीरा की मलार, 6. गर्वागीत, 7, सत्यभामा नो रुपणों तथा 8. मीराबाई की पदावली। इनमें एकमात्र पदावली ही प्रमाणिक और महत्त्वपूर्ण कृति मानी जाती है। सं० 2005 में ब्रजरत्नदास जी ने भी 'मौरा माधुरी' नाम के पदों का एक संकलन प्रकाशित किया है।
काव्यगत विशेषताएँ-- मीरा के काव्य का प्रमुख स्वर भगवान् श्रीकृष्ण का प्रेम ही है। अतः प्रेम की पीर, विरह वेदना, आत्म निवेदन और आत्म-समर्पण सभी कुछ इसी के अन्तर्गत आ जाता है। उन्होंने जो पद लिखे वे तन्मयता से भरे हुए हैं। उन्होंने अन्य कृष्ण भक्त कवियों की तरह गोपियों का विरह वर्णन न कर अपना विरह निवेदन किया है।
दूसरे वे नारी थीं अतः नारी हृदय की पीड़ा, प्रेमानुभूति को पुरुष कवियों की अपेक्षा भली प्रकार समझ सकती थीं। यही कारण है कि उनके पदों में तीव्रानुभूति का परिचय मिलता है। हृदय की तीव्र संवेदना के कारण ही उनकी वाणी में इतना बल आ सका है। मीरा के काव्य का अध्ययन करने पर हमें उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं-
1. भक्ति भावना--मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की भक्ति है। इसमें भक्त भगवान् को प्रिय, पति के रूप में देखता है। मीरा भी श्रीकृष्ण को अपना पति मानती हैं। अपने सारे लौकिक जीवन में एक प्रबल आकांक्षा निरन्तर हरि मिलनं की बनी रही। सभी सांसारिक नाते तोड़ कर लोकलाज की भी परवाह न कर वे हरिभजन में लीन रहीं क्योंकि वही त्रिविध ज्वाला का हरण करने वाले हैं-
मन रे परसि हरि के चरण।
सुभग सीतल कँवल कोमल, त्रिविध ज्वाला हरण ॥
मीरा ने गोपी भाव से भक्ति की है। जिस प्रकार ब्रज की गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था। मीरा भी इसी तरह श्रीकृष्ण के हाथों बिना मोल के बिक गई थीं। श्रीकृष्ण के रूप पर मोहित हुई वे लोक लाज की भी परवाह नहीं करतीं-
आली मेरे नेणां बाण पड़ी।
चित चढ़ी मेरे माधुरी मूरत उर विच आन अड़ी।
कब की ठाड़ी पंथ निहारुं अपने भवन खड़ी।
कैसे प्राण प्रिय बिन राखूं, जीवन मूर जड़ी
मीरा गिरिधर हाथ विकानी, लोक कहें बिगड़ी।
मीरा की भक्ति में प्रेम की तल्लीनता का उद्रेक हुआ है। उनकी वाणी प्रेम की पीर का अनुभव कराने वाली है। मीरा ने प्रेम की इस पीर को प्रकट करने में लोक लाज, कुल की मर्यादा की भी परवाह नहीं की। वे कहती हैं
श्री गिरिधर आगे नाचूंगी।
नाचि-नाचि पिव रसिक रिजाऊं, प्रेमी जन को जादूंगी।
लोक लाज कुल की मर्यादा, या में एक न राखूंगी।
पिय के पलंगा जा पौडूंगी मोर हरिरंग राखूंगी ॥
दुनिया चाहे जो कहे, डरे तो वह जिसने चोरी की हो। मीरा ने प्रिय का प्रेम ठोक बजाकर लिया है-
माई, मैं तो लियौ गोबिन्द मोल।
कोई कहे छानी कोई कहे चोरी, लियो है बर्जता ढोल ॥
कोई कहै कारी, कोई कहै गोरौ, लियौ मैं आंखि खोल ॥
लोक लाज के त्याग की भावना तो केवल पति-प्रणय-भक्ति की एकमात्र अभिव्यक्ति ही थी, अन्य कुछ भी नहीं। इसी उत्कट माधुर्य भावना से मीरा को प्रियतम से मिलन में सहायता दी।
2. प्रेम भावना--मीरा के काव्य में भक्ति का आधार प्रेम तत्व है। प्रेम वह सुखद अनुभूति है जो दो शरीर एक आत्मा हो जाने पर प्राप्त होती है। तब भक्त को अपने इष्ट के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। मीरा भी प्रेम दीवानी है-वह कहती है- 'मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई।' किन्तु वह एक नारी भी है इसलिए समाज उसके प्रेम में अनेक प्रकार की बाधाएँ खड़ी करता है, उन्हें प्रेम करने से रोकता है, हटाता है और जब 'अपने पिया रंग रांची' मीरा नहीं मानती तो उसे 'भटको' या 'बिगड़ी' कहता है किन्तु मीरा को इसकी क्या परवाह। प्रिय मिलन हो जाने पर जग हँसाई मिट जाएगी। वे कहती हैं-
मैं अपने सैयां संग सांची।
अब काहे की लाज सजनी, परगट है नाचीं।
कुलकुटुम्ब आन बैठे, मनहु मधुमाखी।
दासी मीरा लाल गिरिधर, मिटी जग हांसी ॥
मीरा तो श्रीकृष्ण के रूप में 'अटकी' है, जो घट-घट की बात जानते हैं, फिर उसे किसी अन्य की क्यों परवाह हो-
थारो रूप देख्यां अटकी।
कुल कुटुम्ब, सजन सकल, बार-बार हटकी ॥
बिसरयां न लगन लगां, मोर मुकुट नटकी।
म्हारो मन मगन स्याम, लोक कह्यां भटकी।
मीरा प्रभु सरण गह्यां, जान्यां घट घट की ॥
मीरा तो अपने प्रियतम के प्रेम रस में दिन रात मस्त रहती है-
और सखी मद पी पी माती, मैं बिन पियां ही माती।
प्रेम भठी को मद मैं पीयो, छकी फिरुं दिन राती ॥
मीरा की इस उक्ति से हमें गुरु नानक की उक्ति 'नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन राति' की याद हो आती है। मीरा के काव्य में प्रेम की निश्छलता, तल्लीनता एवं एकनिष्ठता की सहज एवं सरल अभिव्यक्ति हुई है।
3. विरह भावना-- मीरा में प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलन की तीव्र लालसा है। श्रीकृष्ण से दूर होकर वह 'असुवन जल सीचि' कर अपनी प्रेम बेल को जीवित रखती है। प्रियतम से मिलन का दिन गिनते-गिनते तो उसके उंगलियों की रेखाएँ भी घिस गई हैं-
आऊ आऊँ कह गया, साँवरा, कर गया कौल अनेक।
गिणते गिणते घस गई ऊँगली, घस गई उँगली की रेख ॥
विरह में मीरा शरीर से इतनी क्षीण हो गई है कि अँगूठी बाँह में आने लगी है-
माँस ज गल गल छीजिया रे, करक रह्या गल आहि।
आँगलियाँ री मूंदड़ी म्हारें, आवण लागो बांहि ॥
प्रियतम के विरह में न दिन को चैन है, न रात को नींद, बस आँसू बहा बहाकर उस दिन की प्रतीक्षा है जब प्रिय मिलन होगा-
मैं विरहिणी बैठी जागूं, जगत सब सोवै री आली।
विरहिणी बैठी रंग महल में, मुतियन की लड़ पोवै ॥
इक विरहिणी हम ऐसो देखी, असुंवन की माला पोवै ॥
तारां गिण-गिण रेण विहानी, सुख की घड़ी कब आवै ॥
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, जब मिलकै बिछुड़ न जावै ॥
मीरा की विरह वेदना को बेचारा वैद्य भी नहीं जान सकता-
बाबल वैद बुलाइया रे, पकड़ दिखाई म्हारी बाँह।
मूरख वैद मरम नहीं जाणो, करक कलेजे माँह।
जा वैद घर आपणो रे, म्हारौ नाँव न लेय।
मैं तो दाघी विरह की रे, तू काहे कूं दारु देय ॥
मीरा तो प्रेम के दर्द की मारी है. उसके इस दर्द को तो वह प्रियतम ही मिटा सकता है-
हे री मैं तो दरद दिवाणी, मेरो दरद न जाणे कोण।
दरद की मारी बन बन डोलूँ, वैद मिल्या नहि कोइ।
'मीरा के प्रभु पीर मिटै जब, वैद सांवलिया होइ ॥'
निष्कर्ष रूप से हम कह सकते हैं कि मीरा की विरह उनके हृदय के उन्मुक्त उच्छवास एवं उद्गार हैं। डॉ० परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार-मीरा के काव्य में विरह वर्णन विप्रलम्भ श्रृंगार जैसा ही हुआ है किन्तु उसमें आन्तरिक वेदना का समावेश होने से मानसिक पक्ष की प्रधानता है।
4. रहस्यात्मकता -- मीरा के काव्य में कहीं-कहीं निर्गुण धारा के संत कवियों एवं सूफी कवियों के प्रभाव स्वरूप रहस्यात्मकता के भी दर्शन होते हैं परन्तु यह रहस्यात्मकता दुरुह नहीं है। कारण कि उनके इष्ट का स्वरूप हम सबके समक्ष पूर्णतया उजागर है। फिर मधुरा भक्ति में तो थोड़ी बहुत रहस्यात्मकता तो रहती ही है परन्तु मीरा पर संतों और सूफियों का ही प्रभाव लक्षित होता है। वह भी उनकी तरह संसार को नश्वर मानती हैं-
भज मन चरण कमल अविनासी।
जेताड़ दीसे धरण-गगन-बिच तेताई सब उठ जासी।
या देह का गरब न करना, माटी में मिल जासी।
यौ संसार चहर की बाजी, सांझ पड़याँ उठ जासी।
मीरा भी निर्गुण संतों, सूफी कवियों की तरह पंच रंग चोला पहन कर झिरमिट का खेल खेलने जाती है। उसने भी-
सुरत-निरत का दिवला संजोया, मनसा कर ली बाती।
अगम धामि रौ तेल सिंचाची, बाल रही दिन राती ॥
इसी रहस्यात्मकता ने सांवरिया में घट-घट व्यापी राम की अभिव्यंजना की है। मीरा की मधुर-भाव-सिक्त भक्ति में ही रहस्यात्मकता उत्पन्न हुई। अपने सांवरिया का साक्षात्कार करके मीरा की आत्मा पुकार उठी है।
मैं जान्यो नाही प्रभु को मिलन कैसे होई री। आये मेरे सजनां फिरि गए अंगना, मैं आभागिन रही सोई री।
यहाँ सोना वहीं सोना है जिसे सूफी संत हाल की दशा कहते हैं और रहस्यवादी 'मिलन मूर्छा' निर्गुण संतों की विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग अग्र पंक्तियों में देखा जा सकता है-
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पुस्तक कवितालोक, संपादक डॉक्टर शिव कुमार शर्मा ,पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ Chapter - मीराबाई