Chapter - मीराबाई
मीराबाई भगवान् कृष्ण की अनन्य उपासिका थीं। वह उन्हें पति-रूप में मानकर उनकी आराधना करती थी। मीरा के पदों में श्री कृष्ण से मिलने की आतुरता का बड़ा सहज चित्रण हुआ है। उसने अपना सर्वस्व त्याग कर प्रभु की शरण ली है। उसके पदों में जिस तन्मयता का चित्रण है, वैसी तन्मयता बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है।
पद (1)
तनक हरि चितवौजी मोरी ओर ॥ टेक ॥
हम चितवन तुम चितवत नाहीं, दिल के बड़े कठोर।
मेरे आसा चितवनि तुमरी, और न दूजी दोर।
तुमसे हमकूं कबर मिलोगे, हमसी लाख करोर।
अभी ठाढ़ी अरज करत हूं, अरज करत भयो भोर।
मीरां के प्रभु हरि अविनासी, देस्यूं प्राण अकोर॥
शब्दार्थ :-
चितवौ = देखो । चितवत = देखते । ठाड़ी = खड़ी। अरज = प्रार्थना। दोर = दौड़, पहुंच । भोर = प्रातः काल । अकोर = भेंट। ऊभी = आशा में।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद में मीराबाई ने अपने इष्ट देवता (भगवान् कृष्ण) के दर्शन की अभिलाषा प्रकट की है। प्रिय-दर्शन के अभाव ने मीरा को अत्यन्त व्याकुल कर दिया है।
व्याख्या:-
हे कृष्ण! तनिक हमारी ओर भी देखो। मैं तो प्रियतम (प्रभु) की ओर देख रही हूँ, पर वे मेरी और देख ही नहीं रहे।
उनका हृदय बड़ा कठोर है। प्रभु की कृपा दृष्टि से मेरी आशा बनी हुई है। मेरी और कहीं पर दौड़ नहीं अर्थात् प्रभु
के सिवा मेरा और कोई सहारा नहीं। प्रभु के दर्शनों की अभिलाषा में ही खड़ी तथा उनसे प्रार्थना करते-करते
प्रातःकाल हो गया है। मीरा कहती है- हे प्रभु! तुम अविनाशी हो। मैं तुम्हारे ऊपर अपने प्राण न्योछावर कर दूँगी।
विशेष :-
(1) मीरा ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया है।
(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।
(3) गीति शैली का प्रयोग है।
(4) संगीतात्मकता प्रवाहमयता विद्यमान है।
(5) वियोग श्रृंगार का परिपाक हुआ है।
(6) माधुर्य गुण का समावेश है।
(7) अनुप्रास, पदमैत्री अलंकारों का प्रयोग है।
(8) बिंब योजना सार्थक एवं सटीक है।
पद (2)
मेरे नैणां बाण पड़ी ॥ टेक ॥
चित्त चढ़ी मेरे माधुरी मूरत, उर बिच आन अड़ी।
कब की ठाड़ी पंथ निहारूं, अपने भवन खड़ी।
कैसे प्राण पिया बिनि राखूं, जीवन मूर जड़ी।
मीरां गिरधर हाथ बिकानी, लोग कहें बिगरी ॥
शब्दार्थ:-
आली = सखी। बाण आदत। ठाड़ी खड़ी। पंथ प्रसंग - यह पद 'कवितालोक' में संकलित 'मीराबाई के पद' से भावना का उल्लेख है। रास्ता। निहारूं देख रही हैं। मूर = मूल, मुख्य। अवतरित है। इस पद में मीराबाई की समर्पण की
व्याख्या:-
मीरा जी श्रीकृष्ण के मधुर रूप पर आसक्त हो गई हैं। अपने इस अनुभव का वर्णन करती हुई वे अपनी सखी से
कहती है-है सखी! मेरी आँखों को श्रीकृष्ण के मधुर एवं आकर्षक रूप को देखने की आदत पड़ गई है। मेरे हृदय
में श्रीकृष्ण की मूर्ति चढ़ गई है। वह हृदय में अड़ गई है अर्थात् अब उसका निकलना सम्भव नहीं। मैं अपने भवन में
खड़ी कब से प्रियतम का मार्ग देख रही हूँ। मेरे प्राण उसी साँवले कृष्ण में अटक गए हैं। भगवान् मेरे जीवन का
मूलाधार हैं। वे मेरे प्राणों की रक्षा करने वाली संजीवनी के समान हैं। मीरा कहती है कि मैं तो श्रीकृष्ण के हाथों बिक
गई हूँ अर्थात् मैं पूरी तरह उनके प्रति समर्पित हो चुकी हूँ लोग भ्रांति के कारण कह रहे हैं कि मैं बिगड़ गई हूँ।
विशेष :-
(1) मीरा ने भगवान् के दर्शन की उत्कट अभिलाषा प्रकट की है।
(2) हृदय में अड़ना, हाथों बिकना आदि मुहावरों का प्रयोग है।
(3) साहित्यिक ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।
(4) गीति शैली है।
(5) संगीत तत्वों का समायोजन है।
(6) श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक है।
(7) माधुर्य गुण की अभिव्यंजना हुई है।
(8) बिम्ब योजना सार्थक है।
(9) अनुप्रास एवं पदमैत्री की शोभा दर्शनीय है
पद(3)
पग घुंघरू बांध मीरां नाची, रे॥ टेक ॥
मैं तो मेरे नारायण की, आपहि हो गई दासी, रे।
लोग कहैं मीरां भई बावरी, न्यात कौं कुलनासी, रे।
विष का प्याला राणा जी भेज्या, पीवत मीरा हांसी, रे।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनासी, रे॥
शब्दार्थ :-
बावरी = पगली, न्यात रिश्तेदार, कुलनासी = कुल का नाश करने वाली।
प्रसंग :-
यह पद 'मीराबाई' विरचित 'पद' से संग्रहित किया गया है। इस पद में मीराबाई की श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भावों की अभिव्यक्ति हुई है।
व्याख्या:-
प्रस्तुत पद में मौरा ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया है। उन्होंने लोक-लाज का परित्याग
कर प्रभु की शरण ग्रहण की थी। अतः वे निःसंकोच भाव से कहती हैं-मीरा अपने पांवों में घुंघरु बांधकर नाचती है।
वे तो श्रीकृष्ण की स्वयं ही दासी बन गई हैं। लोगों का कथन है कि मीरा पागल हो गई है। रिश्तेदार तो उसे कुल का
नाश करने वाली बताते हैं। मीरा के देवर राणा ने उन्हें मारने के लिये विष का प्याला भेजा मीरा ने उसे हँस कर पी
डाला। मीरा के प्रभु तो श्रीकृष्ण हैं। वे अविनाशी हैं और मीरा को सहज रूप से प्राप्त हो गए हैं।
विशेष:-
(1) जिस पर प्रभु की कृपा होती है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा है।
(3) गीति तत्वों का समावेश है।
अगरबत्ती और चन्दन की चिता बनाती हूँ तू स्वयं अपने हाथों से इसमें आग लगा दे। मैं जल कर राख की देरी बन
पद (5)
जोगिया से प्रीत कियां दुख होइ ॥ टेक ॥
प्रीति किया सुख ना मोरी सजनी, जोगी मित न कोई।
राति दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलयां बिनि मोड़ ॥
ऐसी सूरत या जग मांही फेरि न देखी सोड़।
मीरां के प्रभु कबरे मिलोगे, मिलियां आणंद होइ ॥
शब्दार्थ :-
प्रीत = प्रेम, सजनी सखी, मित मित्र, दिवस दिन, कल = चैन ।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पद में मीरा ने अपनी वियोगानुभूति का चित्रण किया है।
व्याख्या:-
हे सजनी ! योगी अर्थात् निर्मोही एवं भ्रमणशील परदेशी से प्रेम करने पर तो दुःख ही होता है। योगी से प्रेम करने
वाले को कभी सुख प्राप्त नहीं होता। योगी किसी का भी मित्र नहीं। हे प्रिय ! तुम्हारे वियोग में मुझे रात-दिन कभी
भी चैन नहीं मिलता, तुम्हारे वियोग में तो मैं मर ही जाऊँगी। हे प्रिय ! जैसी सूरत तुम्हारी है, वैसी सूरत इस संसार में
फिर कभी नहीं देखी गई। अभिप्राय यह है कि एक बार प्रभु ने मीरा को दर्शन दिए, उसके बाद वे ऐसे लुप्त हुए कि
आज तक उनके दर्शनों की लालसा बनी हुई है। मीराबाई कहती है कि हे प्रभु! आप मुझे कब मिलेंगे। आप के
मिलने से ही मुझे आनन्द की प्राप्ति होगी।
विशेष:-
(1) मीराबाई की वियोगावस्था का चित्रांकन हुआ है।
(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।
(3) गोतिमयता संगीतात्मकता विद्यमान है।
(4) वियोग श्रृंगार का परिपाक हुआ है।
(5) माधुर्य गुण का समावेश है।
(6) अनुप्रास अलंकार विद्यमान है
पद (6)
हेरी मैं तो दरद दिवाणी होइ, दरद न जाणै मेरी कोई ॥ टेक ॥
घाइल की गति घाइल जाणें, की जिण लाई होइ।
जौहरी की गति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होई।
सूली ऊपरि सेज हमारी, सोवणा किस विध होई।
गगन मंडल पै सेझ पिया की, किस विध मिलणा होई ॥
दरद की मारी बन बन डोलूं, वैद मिल्या नहिं कोई।
मीरां के प्रभु पीर मिटेगी, जब वैद सांवलिया होइ ॥
प्रसंग:-
प्रस्तुत पद की रचयिता श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका मीराबाई हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को पति रूप में मानकर उनके प्रति अपने हृदय के उद्गार प्रकट किए हैं। विरह-बाण से पीड़ित मीरा कहती है-
व्याख्या:-
हे सखी। मैं श्रीकृष्ण के वियोग में पागल हो गई हूँ। मेरे दर्द को कोई नहीं जानता। घायल की दशा को घायल ही
जान सकता है अथवा जिसने घायल किया हो वह जानता है। एक जौहरी की दशा को दूसरा जौहरी जान सकता है
अथवा जिसने कभी जौहर (जीवित जलना) किया है। मेरी सेज तो शूली के ऊपर है। मैं उस पर कैसे सो सकती हूँ ?
मेरे प्रियतम शून्य (आकाश) में बसते हैं। मेरा उनसे किस प्रकार मिलन सम्भव हो सकता है। विरह की पीड़ा लिए
हुए मैं वन-वन में घूम रही हूँ। इस पीड़ा के रोग को दूर करने वाला मुझे कोई वैद्य नहीं मिला। मीरा कहती है कि
उसके विरह की पीड़ा तभी दूर हो सकती है जब स्वयं श्रीकृष्ण वैद्य बनकर आएं।
विशेष:-
(1) यहाँ मीरा अपने प्रियतम से मिलने के लिए अत्यधिक आतुर दिखाई देती है। इस पद्यांश में यह भी स्पष्ट हुआ है कि उस ईश्वर की प्राप्ति सहज नहीं।
(2) साहित्यिक ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।
(3) गीति शैली है।
(4) संगीतात्मकता का पूर्ण प्रवाह विद्यमान है।
(5) श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक है।
(6) माधुर्य गुण का समावेश है।
(7) अनुप्रास, पदमैत्री, पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का प्रयोग है।
पद (7)
पतियां मैं कैसे लिखें, लिखिही न जाइ ॥ टेक ॥
कलम धरत मेरो कर कंपत, हिरदो रहो धर्राई ॥
बात कहूं मोहि बात न आवै, जैन रहे झर्राई।
किस विध चरण कमल में गहिहीं, सबहि अंग चर्राई।
मीरां कहै प्रभु गिरधर नागर, सब ही दुख बिसराई ।।