पुस्तक कवितालोक, संपादक डॉक्टर शिव कुमार शर्मा ,पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ Chapter - मीराबाई


 Chapter - मीराबाई

मीराबाई भगवान् कृष्ण की अनन्य उपासिका थीं। वह उन्हें पति-रूप में मानकर उनकी आराधना करती थी। मीरा के पदों में श्री कृष्ण से मिलने की आतुरता का बड़ा सहज चित्रण हुआ है। उसने अपना सर्वस्व त्याग कर प्रभु की शरण ली है। उसके पदों में जिस तन्मयता का चित्रण है, वैसी तन्मयता बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है।

पद (1)

तनक हरि चितवौजी मोरी ओर ॥ टेक ॥

हम चितवन तुम चितवत नाहीं, दिल के बड़े कठोर।

 मेरे आसा चितवनि तुमरी, और न दूजी दोर।

 तुमसे हमकूं कबर मिलोगे, हमसी लाख करोर। 

भी ठाढ़ी अरज करत हूं, अरज करत भयो भोर।

मीरां के प्रभु हरि अविनासी, देस्यूं प्राण अकोर॥

शब्दार्थ :-

 चितवौ = देखो । चितवत = देखते । ठाड़ी = खड़ी। अरज = प्रार्थना। दोर = दौड़, पहुंच । भोर = प्रातः काल । अकोर = भेंट। ऊभी = आशा में।


प्रसंग :-

 प्रस्तुत पद में मीराबाई ने अपने इष्ट देवता (भगवान् कृष्ण) के दर्शन की अभिलाषा प्रकट की है। प्रिय-दर्शन के अभाव ने मीरा को अत्यन्त व्याकुल कर दिया है।


व्याख्या:-

 हे कृष्ण! तनिक हमारी ओर भी देखो। मैं तो प्रियतम (प्रभु) की ओर देख रही हूँ, पर वे मेरी और देख ही नहीं रहे।

 उनका हृदय बड़ा कठोर है। प्रभु की कृपा दृष्टि से मेरी आशा बनी हुई है। मेरी और कहीं पर दौड़ नहीं अर्थात् प्रभु

 के सिवा मेरा और कोई सहारा नहीं। प्रभु के दर्शनों की अभिलाषा में ही खड़ी तथा उनसे प्रार्थना करते-करते

 प्रातःकाल हो गया है। मीरा कहती है- हे प्रभु! तुम अविनाशी हो। मैं तुम्हारे ऊपर अपने प्राण न्योछावर कर दूँगी।


विशेष :-

(1) मीरा ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया है।

(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।

(3) गीति शैली का प्रयोग है।

(4) संगीतात्मकता प्रवाहमयता विद्यमान है।

(5) वियोग श्रृंगार का परिपाक हुआ है।

(6) माधुर्य गुण का समावेश है।

(7) अनुप्रास, पदमैत्री अलंकारों का प्रयोग है।

(8) बिंब योजना सार्थक एवं सटीक है।


पद (2)

मेरे नैणां बाण पड़ी ॥ टेक ॥

चित्त चढ़ी मेरे माधुरी मूरत, उर बिच आन अड़ी।

कब की ठाड़ी पंथ निहारूं, अपने भवन खड़ी।

कैसे प्राण पिया बिनि राखूं, जीवन मूर जड़ी।

मीरां गिरधर हाथ बिकानी, लोग कहें बिगरी ॥

शब्दार्थ:-

 आली = सखी। बाण आदत। ठाड़ी खड़ी। पंथ प्रसंग - यह पद 'कवितालोक' में संकलित 'मीराबाई के पद' से भावना का उल्लेख है। रास्ता। निहारूं देख रही हैं। मूर = मूल, मुख्य। अवतरित है। इस पद में मीराबाई की समर्पण की


व्याख्या:-

मीरा जी श्रीकृष्ण के मधुर रूप पर आसक्त हो गई हैं। अपने इस अनुभव का वर्णन करती हुई वे अपनी सखी से

 कहती है-है सखी! मेरी आँखों को श्रीकृष्ण के मधुर एवं आकर्षक रूप को देखने की आदत पड़ गई है। मेरे हृदय

 में श्रीकृष्ण की मूर्ति चढ़ गई है। वह हृदय में अड़ गई है अर्थात् अब उसका निकलना सम्भव नहीं। मैं अपने भवन में

 खड़ी कब से प्रियतम का मार्ग देख रही हूँ। मेरे प्राण उसी साँवले कृष्ण में अटक गए हैं। भगवान् मेरे जीवन का

 मूलाधार हैं। वे मेरे प्राणों की रक्षा करने वाली संजीवनी के समान हैं। मीरा कहती है कि मैं तो श्रीकृष्ण के हाथों बिक

 गई हूँ अर्थात् मैं पूरी तरह उनके प्रति समर्पित हो चुकी हूँ लोग भ्रांति के कारण कह रहे हैं कि मैं बिगड़ गई हूँ।


विशेष :-

 (1) मीरा ने भगवान् के दर्शन की उत्कट अभिलाषा प्रकट की है।

(2) हृदय में अड़ना, हाथों बिकना आदि मुहावरों का प्रयोग है।

(3) साहित्यिक ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।

(4) गीति शैली है।

(5) संगीत तत्वों का समायोजन है।

(6) श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक है।

(7) माधुर्य गुण की अभिव्यंजना हुई है।

(8) बिम्ब योजना सार्थक है।

(9) अनुप्रास एवं पदमैत्री की शोभा दर्शनीय है




पद(3)

 पग घुंघरू बांध मीरां नाची, रे॥ टेक ॥

मैं तो मेरे नारायण की, आपहि हो गई दासी, रे।

लोग कहैं मीरां भई बावरी, न्यात कौं कुलनासी, रे।

विष का प्याला राणा जी भेज्या, पीवत मीरा हांसी, रे।

मीरां के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनासी, रे॥

शब्दार्थ :-

 बावरी = पगली, न्यात रिश्तेदार, कुलनासी = कुल का नाश करने वाली।

प्रसंग :-

यह पद 'मीराबाई' विरचित 'पद' से संग्रहित किया गया है। इस पद में मीराबाई की श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भावों की अभिव्यक्ति हुई है।

व्याख्या:-

 प्रस्तुत पद में मौरा ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया है। उन्होंने लोक-लाज का परित्याग

 कर प्रभु की शरण ग्रहण की थी। अतः वे निःसंकोच भाव से कहती हैं-मीरा अपने पांवों में घुंघरु बांधकर नाचती है।

 वे तो श्रीकृष्ण की स्वयं ही दासी बन गई हैं। लोगों का कथन है कि मीरा पागल हो गई है। रिश्तेदार तो उसे कुल का

 नाश करने वाली बताते हैं। मीरा के देवर राणा ने उन्हें मारने के लिये विष का प्याला भेजा मीरा ने उसे हँस कर पी

 डाला। मीरा के प्रभु तो श्रीकृष्ण हैं। वे अविनाशी हैं और मीरा को सहज रूप से प्राप्त हो गए हैं।


विशेष:-

 (1) जिस पर प्रभु की कृपा होती है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा है।

(3) गीति तत्वों का समावेश है।

(4) श्रृंगार रस का प्रयोग है।

(5) माधुर्य गुण है।

(6) अनुप्रास की छटा है।

(7) बिंब योजना सार्थक एवं सटीक है।

पद (4)

जोगी मत जा मत जा मत जा, पांइ परूं मैं चेरी तेरी हाँ ॥ टेक ॥

प्रेम भगति को पैंडो ही न्यारो, हमकूं गैल बता जा।

अगर चंदण की चिता बणाऊं, अपने हाथ जला जा॥

जल बल भई भस्म की ढेरी, अपणे अंग लगा जा

मीरां कहै प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा ॥

शब्दार्थ :-
 चेरी = दासी, पैंडो मार्ग, न्यारो विचित्र, गैल रास्ता, अगारा सुगन्धित पदार्थ अगरबत्ती, जोत= ज्योति ।

प्रसंग :-
 प्रस्तुत पद्मावतरण 'कवितालोक' में संकलित तथा 'मीराबाई' द्वारा रचित उनके पदों में से अवतरित है। इसमें मीराबाई की श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भावों का चित्रांकन हुआ है।

व्याख्या:-
 मीराबाई अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को सम्बोधित करती हुई कहती हैं- हे योगी! तू मत जा! मत जा । मैं तुम्हारी दासी

 हूँ। तुम्हारे पाँव पड़कर यही प्रार्थना करती हूँ कि तू मुझे छोड़कर कहीं मत जा। प्रेम-भक्ति मार्ग ही विचित्र है। तू

 हमें रास्ता बता दे अर्थात् मुझे प्रभु-भक्ति में लीन कर दे। मैं तुम्हारे विरह में अत्यन्त दुःखी हूँ। मैं सुगन्धित पदार्थ

 अगरबत्ती और चन्दन की चिता बनाती हूँ तू स्वयं अपने हाथों से इसमें आग लगा दे। मैं जल कर राख की देरी बन

 जाऊँ तो राख अपने शरीर में लगा लेना। मीरा कहती है कि हे मेरे स्वामी गिरिधर नागर! तू ज्योति में ज्योति मिला

 जा। भाव यह है कि मैं (आत्मा) भी तुम्हारा (परमात्मा) एक अंश हूँ। अतः इस अंश को अपने में लीन कर ले।



विशेष :-
(1) मीराबाई का कृष्ण के प्रति समर्पण भाव व्यक्त हुआ है।

(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा है।

(3) गैयता पूर्ण छन्द की योजना है।

(4) वियोग श्रृंगार रस का परिपाक है।

(5) माधुर्य गुण है।

(6) संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

(7) अनुप्रास की अद्भुत छटा है।

(8) बिंब योजना सटीक है।


पद (5)

 जोगिया से प्रीत कियां दुख होइ ॥ टेक ॥

प्रीति किया सुख ना मोरी सजनी, जोगी मित न कोई। 

राति दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलयां बिनि मोड़ ॥

ऐसी सूरत या जग मांही फेरि न देखी सोड़।

मीरां के प्रभु कबरे मिलोगे, मिलियां आणंद होइ ॥

शब्दार्थ :-

प्रीत = प्रेम, सजनी सखी, मित मित्र, दिवस दिन, कल = चैन ।


प्रसंग:-

प्रस्तुत पद में मीरा ने अपनी वियोगानुभूति का चित्रण किया है।


व्याख्या:-

 हे सजनी ! योगी अर्थात् निर्मोही एवं भ्रमणशील परदेशी से प्रेम करने पर तो दुःख ही होता है। योगी से प्रेम करने

 वाले को कभी सुख प्राप्त नहीं होता। योगी किसी का भी मित्र नहीं। हे प्रिय ! तुम्हारे वियोग में मुझे रात-दिन कभी

 भी चैन नहीं मिलता, तुम्हारे वियोग में तो मैं मर ही जाऊँगी। हे प्रिय ! जैसी सूरत तुम्हारी है, वैसी सूरत इस संसार में

 फिर कभी नहीं देखी गई। अभिप्राय यह है कि एक बार प्रभु ने मीरा को दर्शन दिए, उसके बाद वे ऐसे लुप्त हुए कि

 आज तक उनके दर्शनों की लालसा बनी हुई है। मीराबाई कहती है कि हे प्रभु! आप मुझे कब मिलेंगे। आप के

 मिलने से ही मुझे आनन्द की प्राप्ति होगी।


विशेष:-

 (1) मीराबाई की वियोगावस्था का चित्रांकन हुआ है।

(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।

(3) गोतिमयता संगीतात्मकता विद्यमान है।

(4) वियोग श्रृंगार का परिपाक हुआ है।

(5) माधुर्य गुण का समावेश है।

(6) अनुप्रास अलंकार विद्यमान है

पद (6)

 हेरी मैं तो दरद दिवाणी होइ, दरद न जाणै मेरी कोई ॥ टेक ॥

घाइल की गति घाइल जाणें, की जिण लाई होइ।

जौहरी की गति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होई।

सूली ऊपरि सेज हमारी, सोवणा किस विध होई।

 गगन मंडल पै सेझ पिया की, किस विध मिलणा होई ॥

दरद की मारी बन बन डोलूं, वैद मिल्या नहिं कोई।

मीरां के प्रभु पीर मिटेगी, जब वैद सांवलिया होइ ॥

प्रसंग:-

 प्रस्तुत पद की रचयिता श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका मीराबाई हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को पति रूप में मानकर उनके प्रति अपने हृदय के उद्‌गार प्रकट किए हैं। विरह-बाण से पीड़ित मीरा कहती है-


व्याख्या:-

 हे सखी। मैं श्रीकृष्ण के वियोग में पागल हो गई हूँ। मेरे दर्द को कोई नहीं जानता। घायल की दशा को घायल ही

 जान सकता है अथवा जिसने घायल किया हो वह जानता है। एक जौहरी की दशा को दूसरा जौहरी जान सकता है 

अथवा जिसने कभी जौहर (जीवित जलना) किया है। मेरी सेज तो शूली के ऊपर है। मैं उस पर कैसे सो सकती हूँ ? 

मेरे प्रियतम शून्य (आकाश) में बसते हैं। मेरा उनसे किस प्रकार मिलन सम्भव हो सकता है। विरह की पीड़ा लिए 

हुए मैं वन-वन में घूम रही हूँ। इस पीड़ा के रोग को दूर करने वाला मुझे कोई वैद्य नहीं मिला। मीरा कहती है कि 

उसके विरह की पीड़ा तभी दूर हो सकती है जब स्वयं श्रीकृष्ण वैद्य बनकर आएं।


विशेष:-

 (1) यहाँ मीरा अपने प्रियतम से मिलने के लिए अत्यधिक आतुर दिखाई देती है। इस पद्यांश में यह भी स्पष्ट हुआ है कि उस ईश्वर की प्राप्ति सहज नहीं।

(2) साहित्यिक ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।

(3) गीति शैली है।

(4) संगीतात्मकता का पूर्ण प्रवाह विद्यमान है।

(5) श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक है।

(6) माधुर्य गुण का समावेश है।

(7) अनुप्रास, पदमैत्री, पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का प्रयोग है।


पद (7)

 पतियां मैं कैसे लिखें, लिखिही न जाइ ॥ टेक ॥

कलम धरत मेरो कर कंपत, हिरदो रहो धर्राई ॥

बात कहूं मोहि बात न आवै, जैन रहे झर्राई।

किस विध चरण कमल में गहिहीं, सबहि अंग चर्राई।

मीरां कहै प्रभु गिरधर नागर, सब ही दुख बिसराई ।।



शब्दार्थ:- 
पतियों पत्र, हिरदो हृदय, धर्राई धड़कता है. झर्राई झरना, गहिहाँ ग्रहण किए है, थर्राईकांपता है, बिसराई भुला दिया।

प्रसंग:-
 यह पद 'कवितालोक' पाठ्य पुस्तक में संकलित तथा मीराबाई द्वारा रचित है। इस पद में मीराबाई की विरहावस्था की मार्मिक दशा का चित्रांकन है।

व्याख्या:-
 मौरा भगवान् कृष्ण के विरह में व्याकुल एवं विवश होकर कहती हैं कि मैं अपने प्रियतम को पत्र कैसे लिखूँ। मुझसे

 चाहती हूँ तो मेरे तो सारे लिखा मुझे नहीं बात जाता। कलम पकड़ते नहीं सूझती और आँखों ही मेरा हाथ कांपने 

लगता से आँसू झरने लगते हैं। मैं है और किस हृदय तरह से धड़कने लगता भगवान् के है। बात कहना चरणों को 

पकहूँ। अंग ही काँप रहे हैं। मीरा कहती है कि हे प्रियतम। आप अपनी कृपा से मेरे सब दुःखों को भुलवा दें अथवा 

इन्हें दूर कर दें।


विशेष:-
 (1) यहाँ मीरा के प्रेम की आतुरता का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है।

(2) विरह को पराकाष्ठा का मार्मिक अंकन है।

(3) साहित्यिक ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा है

(4) संगीत तत्व विराजमान है।

(5) अनुप्रास, पदमैत्री, रूपक अलंकारों का प्रयोग है।

(6) बिंब योजना सार्थक है।

(7) वियोग श्रृंगार की व्यंजना हुई है।

(8) माधुर्य गुण है।







पद (8)

 मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।

छांडि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई। 

संतन ढिग बैठि बैठि, लोक लाज खोई।

अंसुवन जल सीचि सीचि, प्रेम बेलि बोई।

अब तो बेल फैल गई, आणंद फल होई।

भगति देखी राजी हुई, जगति देखि रोई।

दासी मीरां लाल गिरधर, तोरो अब मोही ॥

शब्दार्थ:-
 कानि लाज। ढिग निकट ।

प्रसंग:-
 प्रस्तुत पद मीराबाई की पदावली से अवतरित किया गया है। इसमें कवयित्री ने भगवान् कृष्ण को पति रूप में मानकर उनके प्रति अपनी अनन्य भक्ति भावना का परिचय दिया है। 


व्याख्या:-
 मीरा जी कहती हैं- मेरा तो सर्वस्व श्री कृष्ण हैं। उनके सिवा मेरा किसी से कोई संबंध नहीं। मोर-मुकुट

धारण करने वाले श्री कृष्ण ही मेरे पति हैं। मैंने अपने परिवार की मान-मर्यादा को छोड़ कर उन्हें अपना लिया है। 

इसलिए मेरा अब कोई क्या कर सकता है अर्थात् मुझे किसी की परवाह नहीं। मैं लोक-लाज की चिन्ता छोड़कर 

संतोंके पास बैठती हूँ। मैंने आँसुओं के जल से सींच-सींच कर प्रेम बेल को बोया है। अभिप्राय यह है कि श्री कृष्ण के 

प्रति मीरा के मन की प्रेम-बेल का विकास हो चुका है। अतः अब उसे किसी प्रकार से भी नष्ट नहीं किया जा सकता।

मीरा जी कहती हैं कि वे प्रभु भक्त को देख कर तो प्रसन्न होती हैं पर संसार को देखकर रो पड़ती हैं। भाव यह है कि

 माया-मोह में लिप्त प्राणियों के दयनीय अंत की कल्पना मात्र से मीरा का हृदय दुःख से भर जाता है। मीरा स्वयं को

 श्री कृष्ण की दासी मानती हुई उनसे अपने उद्धार की प्रार्थना करती है।


विशेष:-
 (1) मीरा श्री कृष्ण के प्रति समर्पित है। उन्हें वह अपने पति रूप में मानती है।

(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग है।

(3) भावात्मक शैली है।

(4) प्रवाहमयता, संगीतात्मकता का पूर्ण प्रवाह है।

(5) गेयता पूर्ण छंद की योजना की गई है।

(6) श्रृंगार रस का परिपाक है।

(7) माधुर्य गुण का समावेश है।

(8) अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक अलंकारों का सुंदर प्रयोग है।


पद (9)

 मैं गोविन्द गुण गाणा ॥ टेक ॥

राजा रूठे नगरी राखे, हरि रूठ्यां कहै जाणा।

राणै भेज्या जहर पियाला, रुमिरत करि पी जाणा।

डबिया में भेज्या ज भुजंगम, सालिगराम करि जाणा।

मीरां तो अब प्रेम दिवाणी, सांवलिया वर पाणा।

शब्दार्थ :-
-गाणा = गाऊंगी। रूठ्यां रूठने पर। विषरो = विष का। सालिगराम विष्णु के रूप में पूजा जाने वाला पत्थर का एक टुकड़ा। पाणा प्राप्त किया।

प्रसंग :-
 यह पद 'मीराबाई' द्वारा रचित है। यह 'कवितालोक' में संकलित है। यहां मीराबाई की एकनिष्ठ भावना का चित्रांकन हुआ है।

व्याख्या:-
 हे सखि । मैं तो अपने प्रियतम गोविंद का गुणगान करूँगी। मेरे इस कार्य से यदि राजा रूठ जाएँगे तो मैं नगरी

 छोड़कर चली जाऊँगी लेकिन भगवान् के रूठ जाने पर कहाँ जाऊँगी। मीरा भगवान् को ही सर्वस्व मानती हैं और 

वे संसार के कण-कण में व्याप्त हैं। उनके रूठ जाने पर भक्त को कहीं आश्रय प्राप्त नहीं होता। मुझे मारने के लिए 

मेरे देवर राणा ने विष का प्याला भेजा। मैं उसे भगवान् का चरणामृत समझ कर पी गई। राणा ने मुझे मारने के लिए 

पिटारी में बंद करके काला नाग भेजा लेकिन मैंने उसे विष्णु रूप सालिगराम पाया अर्थात् वह नाग मुझे भगवान् की 

पत्थर की मूर्ति दिखाई दिया। मीरा कहती हैं कि वे तो श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई हैं। उसने साँवले कृष्ण को 

वर के रूप में प्राप्त कर लिया है।

विशेष:-
 (1) मीरा को उसके ससुराल वालों ने मारने का प्रयत्न किया था। वे मीरा को कुल नाशी समझते थे। यहां
मीरा ने आप बीती घटना का उल्लेख किया है।

(2) राजस्थानी भाषा का प्रयोग है।

(3) ब्रज शब्दावली का प्रयोग अधिकता से किया गया है।

(4) गीति शैली है।

(5) संगीतात्मकता का समावेश है।

(6) श्रृंगार रस है।

(7) माधुर्य गुण है।

(8) अनुप्रास, पदमैत्री अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

(9) बिंब योजना सार्थक एवं सटीक है।


पद (10)

 हेली म्हांसूं हरि बिनि रह्यौ न जाय ॥ टेक ॥

सास लड़ै मेरी ननद खिजावै, राणा रह्या रिसाय।

पहरो भी राख्यौ चौकी बिठार्यो, ताला दियो जड़ाय।

पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाए।

मीरां के प्रभु गिरधर नागर, और न आवै म्हारी दाय।

शब्दार्थ :-
 हेली = सखी, रिसाय कुद्ध, रूठना, दाय = पसंद।

प्रसंग:-
प्रस्तुत पद में मीराबाई ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम का परिचय दिया है। श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार करने के कारण कई बार उन्हें अपने राज-परिवार के लोगों का कोप-भाजन भी बनना पड़ता था।

व्याख्या:- 
हे सखी ! मैं कृष्ण के बिना नहीं रह सकती। इस प्रेम के लिये मेरी सास मुझसे लड़ती है और ननद चिढ़ाती रहती है।

 मेरा देवर राणा हमेशा मेरे प्रति क्रोध का भाव रखता है। उसने मेरे ऊपर पहरा भी लगवा रखा है। मुझे ताले में बन्द

 कर रखा है अर्थात् मेरे बाहर निकलने, घूमने और कीर्तन आदि पर पाबंदी है। मेरा श्रीकृष्ण से पूर्व जन्म का प्रेम है

 इसलिए उसे किसी प्रकार छोड़ा जा सकता है? मीरा कहती है- मेरे स्वामी तो गिरिधर हैं। उनके सिवा मुझे कोई

 और पसंद ही नहीं आता।


विशेष:-
 (1) मीराबाई का कृष्ण के प्रति समर्पण भाव का समायोजन है।

(2) ब्रज मिश्रित राजस्थानी का प्रयोग है।

(3) गीति शैली के सभी तत्व विराजमान हैं।

(4) श्रृंगार रस का परिपाक है।

(5) माधुर्य गुण का समावेश है।

(6) विभावना, अनुप्रास, पदमैत्री अलंकारों का सुंदर प्रयोग है।


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