भारत सरकार अधिनियम 1935
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भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act, 1935) ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारत में शासन चलाने के लिए एक महत्वपूर्ण संविधानीक दस्तावेज़ था। यह अधिनियम भारत के संवैधानिक ढांचे को व्यवस्थित करने और देश में स्वशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस अधिनियम के प्रमुख पहलू निम्नलिखित थे:
1. संघ और प्रांतों का विभाजन:
- यह अधिनियम भारत को एक केंद्रीय संघ (All-India Federation) और प्रांतीय प्रशासन (Provincial Administration) में विभाजित करता था। केंद्रीय संघ में ब्रिटिश भारत और रियासतों को सम्मिलित किया गया था, हालांकि रियासतों का नियंत्रण पूरी तरह से ब्रिटिश शासकों के हाथ में था।
- प्रांतों को अधिक स्वायत्तता दी गई, और वहाँ की सरकारों को प्रशासनिक अधिकार प्रदान किए गए।
2. द्व chambers (दो सदनों) की स्थापना:
- केंद्रीय स्तर पर, एक द्व chambers संसद की स्थापना की गई थी। इसमें बृहद परिषद (Council of States) और लोक सभा (Legislative Assembly) शामिल थे।
- प्रत्येक राज्य का प्रतिनिधि परिषद में होता था, जबकि लोक सभा के सदस्य जनता द्वारा चुने जाते थे।
3. प्रांतीय स्वायत्तता:
- प्रांतीय सरकारों को अधिक शक्तियाँ दी गईं। ये सरकारें अपने स्थानीय मामलों में स्वायत्त थीं, जैसे कानून बनाना, बजट का निर्धारण आदि।
- प्रांतों में 3 वर्गों में विभाजित किया गया: 1. "व्यक्तिगत मामले", 2. "संविधानिक मामले", और 3. "सामान्य मामले"।
4. संचालन का द्विवाद:
- ब्रिटिश सरकार और भारतीय प्रतिनिधियों के बीच शक्तियों का विभाजन हुआ था, जिसमें भारतीय केंद्रीय सरकार की शक्ति सीमित थी और कई मामलों में ब्रिटिश अधिकारियों की अंतिम स्वीकृति की आवश्यकता थी।
- भारत के राष्ट्रपति (Governor-General) का पद ब्रिटिश प्रतिनिधि द्वारा भरा जाता था और उस व्यक्ति के पास कुछ विशेष शक्तियाँ थीं।
5. रियासतों का राज्याधिकार:
- रियासतों को संघ के साथ शामिल होने का विकल्प दिया गया, लेकिन उनका केंद्रीय सरकार के मामलों में बहुत कम प्रभाव था। रियासतें स्वतंत्र थीं और उनका ब्रिटिश साम्राज्य के साथ एक विशेष संबंध था।
6. सामाजिक और नागरिक अधिकार:
- इस अधिनियम में भारतीयों को नागरिक अधिकार देने के बावजूद, बहुत से भारतीयों को वोट देने का अधिकार नहीं था। यह मुख्य रूप से संपत्ति और शिक्षा के आधार पर निर्धारित था, और सामान्य लोग इस अधिकार से वंचित थे।
भारत सरकार अधिनियम 1935 को भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है, क्योंकि इसने भारत को एक संघीय ढांचा दिया और कुछ स्वायत्तता प्रदान की, हालांकि यह पूरी तरह से स्वराज की ओर नहीं बढ़ा। यह अधिनियम भारत में 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लागू होने वाली भारतीय संविधान की दिशा में एक आधारशिला था।
संविधान सभा की संरचना
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भारत की संविधान सभा (Constituent Assembly) भारत के संविधान को तैयार करने के लिए 1946 में गठित की गई थी। इस संविधान सभा की संरचना को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है, क्योंकि यह भारतीय लोगों के लिए एक नया संवैधानिक ढांचा तैयार करने की दिशा में एक बड़ा कदम था।
संविधान सभा की संरचना और गठन के बारे में प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
1. संविधान सभा का गठन:
- संविधान सभा का गठन 1946 में हुआ था, जब ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रतिनिधियों से संविधान तैयार करने के लिए एक सभा बनाने का प्रस्ताव किया।
- इसे प्रारंभ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) और अन्य राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों द्वारा भरा गया था।
- कुल 389 सदस्य थे, जिनमें 296 सदस्य ब्रिटिश भारत से थे और 93 सदस्य रियासतों से थे।
2. सदस्यों का चयन:
- ब्रिटिश भारत से सदस्य: ब्रिटिश भारत से संविधान सभा के सदस्य भारतीय प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा चुने गए थे। इन चुनावों में प्रांतीय विधानसभा के सदस्य मध्य और उच्च वर्ग के मतदाताओं के द्वारा चुने गए थे।
- रियासतों से सदस्य: भारतीय रियासतों से सदस्य रियासतों के शासकों द्वारा नियुक्त किए गए थे।
- सदस्यता का चयन विविध दलों, जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग, और अन्य छोटे दलों के प्रतिनिधियों द्वारा किया गया था।
3. सदस्यों का प्रतिनिधित्व:
- संविधान सभा में विभिन्न समुदायों, जैसे हिंदू, मुस्लिम, सिख, और अन्य अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व किया गया था।
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रमुख हिस्सा था, और इस पार्टी के सदस्यों की संख्या संविधान सभा में अधिक थी।
- मुस्लिम लीग के सदस्य भी संविधान सभा का हिस्सा थे, जो भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे, हालांकि 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के बाद मुस्लिम लीग के अधिकांश सदस्य पाकिस्तान के पक्ष में थे।
- रियासतों के सदस्य, जो स्वतंत्र रूप से ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़े थे, वे अपनी रियासतों के हितों का ध्यान रखते हुए शामिल थे।
4. संविधान सभा के प्रमुख सदस्य:
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद: संविधान सभा के पहले अध्यक्ष थे। उन्हें सर्वसम्मति से चुना गया था।
- पंडित जवाहरलाल नेहरू: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जो संविधान सभा के प्रमुख नेताओं में से थे। वे बाद में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने।
- डॉ. भीमराव अंबेडकर: संविधान सभा के प्रमुख विधायी सलाहकार थे और भारतीय संविधान के "मुख्य वास्तुकार" के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी की अध्यक्षता की।
- सादुल्ला खान, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, महात्मा गांधी और अन्य प्रमुख नेताओं ने भी इस सभा में योगदान दिया।
5. संविधान सभा का कार्य:
- संविधान सभा का मुख्य कार्य भारतीय संविधान को तैयार करना था।
- संविधान को तैयार करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया था, जैसे ड्राफ्टिंग कमेटी, जो संविधान के मसौदे को तैयार करने के लिए जिम्मेदार थी।
- संविधान सभा ने विभिन्न चर्चाओं, विचार-विमर्शों और सुझावों के बाद भारतीय संविधान को 26 नवम्बर 1949 को अपनाया।
- संविधान को लागू करने की तिथि 26 जनवरी 1950 थी, जिसे *गणराज्य दिवस* के रूप में मनाया जाता है।
6. संसद और संविधान सभा का परिवर्तन:
- संविधान सभा ने भारतीय संविधान के निर्माण के बाद, 1952 में अपनी भूमिका समाप्त कर दी।
- भारतीय संविधान के लागू होने के बाद, संविधान सभा को भारतीय संसद के रूप में बदल दिया गया। इसमें लोकसभा और राज्यसभा की संरचना की शुरुआत हुई, जो आज भी भारतीय लोकतंत्र की कार्यवाही का हिस्सा हैं।
निष्कर्ष:
संविधान सभा ने भारतीय संविधान को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और यह भारतीय लोकतंत्र की नींव के रूप में कार्य किया। इस सभा के माध्यम से, भारतीय जनता को एक न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक प्रणाली प्रदान की गई।
भारतीय संविधान के संस्थापक सिद्धांत
Answer:-
भारतीय संविधान के संस्थापक सिद्धांत (Fundamental Principles of the Indian Constitution) वे मूलभूत सिद्धांत हैं जो भारतीय संविधान की नींव और संरचना को निर्धारित करते हैं। ये सिद्धांत संविधान के उद्देश्यों, उसके निर्माण और कार्यान्वयन के आधार हैं। भारतीय संविधान के संस्थापक सिद्धांतों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत एक न्यायपूर्ण, लोकतांत्रिक, और सामाजिक रूप से प्रगति करने वाला राष्ट्र बने।
यहाँ भारतीय संविधान के कुछ प्रमुख संस्थापक सिद्धांतों का विवरण है:
1. संप्रभुता (Sovereignty):
- भारतीय संविधान भारत को एक संप्रभु राज्य के रूप में स्थापित करता है, जिसका मतलब है कि भारत के पास अपनी अंतर्राष्ट्रीय और आंतरिक मामलों में पूरी स्वतंत्रता है।
- भारत का संविधान किसी भी विदेशी शक्ति से प्रभावित नहीं होता है, और भारत को अपनी नीतियों, कानूनों और प्रशासन में पूरी स्वतंत्रता प्राप्त है।
2. लोकतंत्र (Democracy):
- भारतीय संविधान का आधार लोकतंत्र है, जो जनता की इच्छा को सर्वोपरि मानता है।
- भारत में लोकतंत्र का मतलब है कि सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और उसकी कार्यवाहियों का लेखा-जोखा जनता द्वारा किया जा सकता है।
- सार्वभौमिक मताधिकार (Universal Suffrage) के सिद्धांत के तहत, सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार प्राप्त है।
3. संविधानवाद (Constitutionalism):
- भारतीय संविधान एक लिखित और स्थायी दस्तावेज है, जो भारतीय राज्य के ढांचे, शक्तियों और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है।
- संविधान के माध्यम से, राज्य की कार्यप्रणाली, नागरिकों के अधिकार, और सरकार की शक्तियाँ निर्धारित की जाती हैं।
- संविधान का पालन करना सरकार के लिए अनिवार्य है, और उसे संविधान के अनुरूप ही कार्य करना होता है।
4. सामाजिक न्याय (Social Justice):
- भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य सामाजिक न्याय है, जिसमें समाज के सभी वर्गों के बीच समानता सुनिश्चित करना है।
- संविधान में विभिन्न अनुच्छेदों के माध्यम से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों, और महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं।
- धार्मिक, जातीय और सांस्कृतिक समानता की अवधारणा भी भारतीय संविधान के संस्थापक सिद्धांतों का हिस्सा है।
5. संघवाद (Federalism):
- भारतीय संविधान संघीय ढांचे पर आधारित है, यानी भारत में एक संघ (केंद्रीय सरकार) और राज्यों के बीच शक्ति का विभाजन है।
- राज्य और केंद्रीय सरकारों के बीच शक्तियाँ और अधिकार स्पष्ट रूप से बांटी गई हैं, और संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि दोनों के बीच अधिकारों का संतुलन बनाए रखा जाए।
- हालांकि भारतीय संविधान संघीय है, लेकिन यह केंद्र की ताकत को अधिक प्रमुख बनाता है, जिससे केंद्र सरकार को विशेष मामलों में राज्य सरकारों से ऊपर रहने की शक्ति मिलती है।
6. धर्मनिरपेक्षता (Secularism):
- भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष है, जिसका अर्थ है कि भारत में कोई राज्य धर्म विशेष को बढ़ावा नहीं देता और न ही किसी धर्म के खिलाफ भेदभाव करता है।
- भारत में प्रत्येक नागरिक को अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करने की स्वतंत्रता है, और राज्य धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है।
- संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।
7. न्यायिक समीक्षा (Judicial Review):
- भारतीय संविधान न्यायपालिका को यह अधिकार देता है कि वह सरकारी कार्यों और कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा कर सके।
- यदि कोई कानून संविधान के प्रावधानों के खिलाफ है, तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।
- इस सिद्धांत के तहत, न्यायपालिका राज्य की शक्तियों के दुरुपयोग से रक्षा करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सरकार संविधान के अनुसार कार्य करे।
8. राज्य की नीति निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy):
- भारतीय संविधान में राज्य की नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSPs) को शामिल किया गया है, जो सरकार को सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
- ये सिद्धांत सरकार के लिए सुझावात्मक होते हैं और इन्हें न्यायालय में लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन ये सरकार के कार्यों का मार्गदर्शन करते हैं।
- जैसे- शिक्षा का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा, समानता का अधिकार, और रोजगार अवसरों की सुलभता।
9. नागरिक अधिकार (Fundamental Rights):
- भारतीय संविधान में मूल अधिकार (Fundamental Rights) का महत्वपूर्ण स्थान है, जो नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता, और न्यायपूर्ण जीवन जीने का अधिकार प्रदान करते हैं।
- ये अधिकार राज्य द्वारा या अन्य किसी से उत्पीड़न के खिलाफ नागरिकों की सुरक्षा करते हैं। उदाहरण स्वरूप, धार्मिक स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता का अधिकार, आदि।
10. विभिन्नता में एकता (Unity in Diversity):
- भारतीय संविधान का एक और सिद्धांत है "विभिन्नता में एकता", जो भारतीय समाज की विविधताओं को स्वीकार करता है, जैसे कि विभिन्न भाषाएँ, धर्म, जातियाँ, और संस्कृतियाँ।
- संविधान भारत की विविधता को सम्मानित करता है, जबकि यह सुनिश्चित करता है कि एकता और अखंडता बनी रहे।
निष्कर्ष:
भारतीय संविधान के संस्थापक सिद्धांत भारत की राजनीतिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करते हैं। इन सिद्धांतों का उद्देश्य भारतीय राज्य और समाज के लिए एक मजबूत, न्यायपूर्ण, और समावेशी आधार तैयार करना है। ये सिद्धांत लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों को बढ़ावा देते हैं।
भारत की प्रस्तावना का विश्लेषण करें
Answer:-
भारत की प्रस्तावना (Preamble of India) भारतीय संविधान का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो संविधान के उद्देश्यों और मूलभूत सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है। यह संविधान के स्वरूप, उद्देश्यों और इसके अंतर्गत दी गई योजनाओं का संक्षिप्त परिचय देती है। प्रस्तावना को भारतीय संविधान का "आध्यात्मिक सूत्र" कहा जाता है क्योंकि यह संविधान के प्रत्येक प्रावधान के पीछे के सिद्धांतों को उजागर करती है।
भारत की प्रस्तावना:
"हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, और उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समानता; तथा उन सभी में व्यक्तिगत और राष्ट्रहित में एकता और अखंडता को बढ़ावा देने के लिए, दृढ़ संकल्पित हैं।"
प्रस्तावना का विश्लेषण:
भारत की प्रस्तावना को समझने के लिए, इसमें उल्लेखित प्रत्येक शब्द और वाक्यांश पर ध्यान देना आवश्यक है। यह न केवल संविधान की मुख्य विशेषताओं का परिचय देता है, बल्कि यह संविधान की उद्देश्यप्रणाली को भी दर्शाता है।
1. "हम, भारत के लोग":
- यह वाक्य भारतीय जनता की संप्रभुता को दर्शाता है। भारतीय संविधान, भारतीय जनता के द्वारा और भारतीय जनता के लिए तैयार किया गया है।
- यह दर्शाता है कि भारत के लोग स्वयं अपनी सरकार बनाने के लिए स्वतंत्र हैं और उनका संविधान के प्रति संकल्प दृढ़ है।
2. "संप्रभु" (Sovereign):
- "संप्रभु" का अर्थ है कि भारत पूरी तरह से स्वतंत्र है। किसी भी बाहरी शक्ति से इसकी कोई निर्भरता नहीं है।
- भारत अपनी आंतरिक और बाहरी नीति को स्वयं निर्धारित करने में स्वतंत्र है। भारत की संप्रभुता का यह अर्थ है कि भारतीय संविधान और सरकार की सत्ता किसी अन्य बाहरी ताकत से नियंत्रित नहीं है।
3. "समाजवादी" (Socialist):
- "समाजवादी" शब्द भारतीय संविधान में समता और सामाजिक न्याय की दिशा में प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- इसका उद्देश्य एक ऐसा समाज बनाना है, जिसमें सभी वर्गों के लोगों को समान अवसर, संसाधन और कल्याणकारी सुविधाएँ मिलें। यह सिद्धांत भारतीय समाज में आर्थिक असमानताओं को कम करने का प्रयास करता है और सभी नागरिकों को न्यायपूर्ण अवसर देने का उद्देश्य रखता है।
4. "धर्मनिरपेक्ष" (Secular):
- "धर्मनिरपेक्ष" का मतलब है कि भारत राज्य धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा और न ही कोई धर्म विशेष को बढ़ावा देगा।
- भारत में सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान होगा, और प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद का धर्म अपनाने की स्वतंत्रता होगी।
- यह सिद्धांत भारत के धार्मिक विविधता को सम्मानित करता है और धार्मिक स्वतंत्रता को संवैधानिक रूप से सुनिश्चित करता है।
5. "लोकतंत्रात्मक" (Democratic):
- भारत का संविधान लोकतंत्र के सिद्धांतों पर आधारित है, जिसका मतलब है कि सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और उसकी इच्छाओं के अनुसार कार्य करती है।
- यह प्रस्तावना के इस हिस्से में यह परिभाषित किया गया है कि भारत में शासन प्रणाली जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा स्थापित की जाती है, और नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं को सुनिश्चित किया जाता है।
6. "गणराज्य" (Republic):
- गणराज्य का अर्थ है कि भारत का प्रमुख (राष्ट्रपति) जनादेश के आधार पर चुना जाएगा, न कि किसी वंशीय अधिकार (राजतंत्र) द्वारा।
- यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के अनुरूप है, जहां सभी पदों के लिए चयन चुनाव के माध्यम से होता है, और न कोई शाही परिवार या सामंती व्यवस्था होती है।
7. "सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय" (Social, Economic, and Political Justice):
- प्रस्तावना में "न्याय" का महत्व बताया गया है, जो न केवल सामाजिक बल्कि आर्थिक और राजनीतिक न्याय की बात करता है।
- इसका मतलब है कि भारत में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार मिलेगा, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, लिंग, या समुदाय के हों।
- यह उद्देश्य सामाजिक असमानताओं को खत्म करने और एक समान और निष्पक्ष समाज बनाने की दिशा में है।
8. "विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता" (Freedom of Thought, Expression, Belief, Faith, and Worship):
- प्रस्तावना में यह सुनिश्चित किया गया है कि भारत के नागरिकों को अपनी विचारधारा, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना के मामले में पूर्ण स्वतंत्रता मिलेगी।
- यह भारत के नागरिकों को उनके व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं का संरक्षण प्रदान करता है।
9. "प्रतिष्ठा और अवसर की समानता" (Equality of Status and Opportunity):
- प्रस्तावना में यह वादा किया गया है कि सभी नागरिकों को बराबरी का दर्जा और समान अवसर मिलेगा।
- यह सिद्धांत सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को खत्म करने की दिशा में है, ताकि हर व्यक्ति को उसके कौशल, योग्यता और क्षमताओं के आधार पर समान अवसर मिल सकें।
10. "व्यक्तिगत और राष्ट्रहित में एकता और अखंडता को बढ़ावा देने के लिए" (To Promote Unity and Integrity of the Nation):
- प्रस्तावना का यह वाक्य राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्धता की घोषणा करता है।
- यह भारत के विभिन्न सांस्कृतिक, जातीय और धार्मिक समूहों के बीच सद्भाव और एकता सुनिश्चित करने के उद्देश्य को व्यक्त करता है।
निष्कर्ष:
भारत की प्रस्तावना भारतीय संविधान का एक आदर्श और प्रेरणादायक दस्तावेज़ है। यह संविधान के उद्देश्यों, आदर्शों और सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। प्रस्तावना भारतीय समाज की विविधता को स्वीकार करते हुए समानता, न्याय और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने का वचन देती है। यह संविधान के सभी प्रावधानों के पीछे एक मूलभूत दर्शन और उद्देश्य प्रदान करती है, जो लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है।